वो कहानियाँ पढ़ती है!

मैं घंटों उसे पढ़ते हुए देख सकता हूँ
वो कहानियाँ पढ़ती है,
मैं उसे पढ़ सकता हूँ!

उन पन्नों के किरदार उसके चेहरे पर अक्सर आते- जाते हैं
होठों को दांतों में दबाए जब वो उँगलियों से बालों के छल्ले बनाती है
तो शायद वो भी उनमें कहीं उलझ जाते हैं

ऐसे में गर तेज़ आवाज़ में पुकार लो उसे
तो घबराकर यूँ देखती है जैसे ज़ोर से गिरी हो आसमां से कहीँ
फिर अपनी ही नादानियों पर शर्माके मुस्कुराती है
मैं इस मुस्कुराहट के लिए उसे अनगिनती बार पुकार सकता हूँ,

वो कहानियाँ पढ़ती है,
मैं उसे पढ़ सकता हूँ!!

अपर्णा त्रिपाठी

रात!

ये रात काली
सर्द हवा,
महकती रातरानी
अलाव की आंच
गेसू खुले से
शॉल में लिपटा, सिमटा सा बदन
और तुम्हारी बात!!

चाँद के रात काटने को और क्या चाहिए!

– अपर्णा त्रिपाठी

रु- ब- रु {वीडियो}

बहुत दिनों से ख़्वाहिश थी कि आपसे रूबरू आऊं और उसी की एक छोटी सी कोशिश है ये वीडियो। इसका ऑडियो थोड़ा ख़राब है, इसके लिए हाथ जोड़ कर माफ़ी। आप मौका देंगे तो इससे बेहतर प्रयास लेकर आपके सामने जल्द ही आउंगी। शुक्रिया 😊🙏

तुम- 3

तुम

तुम ख़्वाब हो,

एक हसीं ख़्वाब!

मैं तुम्हें बुनती हूँ, गुनती हूँ, देखती हूँ, सुनती हूँ, भूलती नहीं

तुम

तुम राज़ हो,

एक खूबसूरत राज़!

मैं तुम्हें छुपाती हूँ, बचाती हूँ, सीने में चुराती हूँ, कहती नहीं

तुम

तुम कल्पना हो,

एक सजीव कल्पना!

मैं तुम्हें सोचती हूँ, सजाती हूँ, आंखों में बसाती हूँ, गढ़ती हूँ, 

कभी मिटाती नहीं

तुम

तुम एक पहेली हो,

एक पेचीदा सी पहेली!

मैं उलझती हूँ, सुलझाती हूँ, समझती हूँ, बताती हूँ

जवाब मिलता नहीं

तुम 

तुम ख़्वाब हो, राज़ हो, कल्पना हो, पहेली हो,
तुम

तुम बस ‘मेरे’ नहीं।
अपर्णा त्रिपाठी©

जंगल

तारों के जाल पर उगा हुआ
ये कंकरीट का जंगल
और उसमें रहते संज्ञाशून्य
असंतुष्ट भूखे जानवर,
जो घोल के पी गए हैं
सारी शर्म, दया, प्यार, अपनापन,
पहन लिए हैं कई- कई मुखौटे
और फाँसते हैं रोज़ शिकार

खुद को याद नहीं
खुद की शक्ल
दौड़ रहे हैं तृष्णा के पीछे
एक अंतहीन सड़क पर
इनके शरीर, मन, दिल पर लगे घाव
इतने सड़ गए हैं
कि लाख लगा लो मरहम,
कर दो पट्टी उपचार,
अब कभी ठीक नहीं हो सकते

पर ये जल्दी मरेंगे भी नहीं
प्रगति के नाम पर दौड़ेंगे
लगा लेंगे और घाव
मारकर खा जाएंगे एक- दूसरे को
और इनकी हड्डियाँ नोचेंगे
कुत्ते, चील, कौव्वे
तारों के जाल पर उगे हुए
इसी कंकरीट के जंगल में!

अपर्णा त्रिपाठी©

तुम- 1

कल रात देर तक देखती रही तुम्हारी तस्वीर को,
तुम्हारी मासूम, खुली सी मुस्कान को,
चाहती थी छू लूँ तुम्हारे चेहरे को,
और बस छूती रही उस बेजान कंप्यूटर स्क्रीन को!

तुम्हारे हाथों पर जब उँगलियाँ फिराईं,
जी चाहा तुम थाम लो मेरे हाथों को उनमें,
या मुस्कुरा कर एक बार फैला दो अपनी बाहें,
कि समा जाऊँ मैं उनमें

सीने से लग जाऊँ तुम्हारे
और देर तक सुनती रहूँ तुम्हारी धड़कनें,
जज़्ब कर लूँ इन्हें अपने कानों में, दिल में,
और भूल जाऊँ बाकी सब कुछ

हों तुम और मैं बस,
और “और” ना रह जाए हमारे बीच।
काश!

अपर्णा त्रिपाठी ©

नए साल का आगाज़

सालों से कुछ परछाईयां सायों में दुबकी थीं

अब मैंने ज़िन्दगी उजालों से भर ली

उदासियों के कंबलों को धूप में डाला

यादों पे जमी धूल झाड़ी तो कहकहों की कई पढ़ी- बे पढ़ी चिट्ठियां निकली

बस फिर क्या

चूल्हे पे एक ओर अदरक वाली चाय चढ़ाई,पकौड़ियों का इंतज़ाम किया

और बुला लिए चार दोस्त

देर तक हम उन चिट्ठियों को पढ़कर हँसते रहे।
अब दीवारों पे यारियों का नया रंग चढ़ा है और दिलों पे भी,

नए साल का ये आगाज़ भी कमाल है।

अपर्णा त्रिपाठी©

फिर फुर्सत मिले तो आना…

फिर फुर्सत मिले तो आना, खामोशियाँ बाटेंगे,

बातों की अलाव जलाएंगे, यादों से किस्से छाटेंगे,

चाय की गर्माहट होगी, सेंक लेंगे ठंडे पड़े रिश्ते,

गिले- शिकवों के ढेर से ढूंढ लेंगे दबी हुई मुस्कुराहटें,

शिकायतों से उधड़ी सीवनों को माफियों से सिल देंगे,

डिब्बों में ध्यान से बंद करके रख लेंगे कसमें वादे आने वाले सालों के लिए,

पिछले सालों के डब्बों पर पड़ी धूल झाड़ेंगे,

फुर्सत मिले तो आना,

खामोशियाँ बाटेंगे।
अपर्णा त्रिपाठी©