बेटी

वो हर रात लौटती है जब घर

थककर,

चहकते हुए दिन के किस्से सुनाती है

कई बार इतना हंसती है

की दुहरानी पड़ती है बातें समझाने के लिए

शिकायतें साथ वालों की करती है तो माथे पर कई कई बल पड़ जाते हैं

सफ़र में रोज़ ही मिलते हैं उसे जाने कैसे दिलचस्प लोग

दोस्त भी तो कितने हैं उसके

उनकी ज़िंदगी में भी ना जाने क्या क्या होता है

घंटों उनके मसले भी हम ख़ुद ही हल कर लेते हैं


पर मुझे मालूम है

अपने कमरे में जब जाती है

अपनी चहेती बालियों के साथ अपनी वो झूठी मुस्कुराहटें भी सहेज लेती है उस डब्बे में

मैंने देखा है चुपके से 

सुबह उसे अपने चेहरे पे चिपकाते


लाचार हूं शरीर से

पर माँ हूँ 

उसकी ये सारी चालाकियां बचपन से ही समझ लेती हूं
अपर्णा त्रिपाठी©