तुम- 4

दो दुनिया समानांतर चलती रहती है मेरे भीतर

जो है और जो होगा नहीं के बीच झूलते
ज़िन्दगी का हाथ धीरे धीरे फिसलता जाता है हाथों से

किसी के जूठे बिस्तर की सिलवटों में तुम्हारी याद समेटे
रात कटती है ज़र्रा-ज़र्रा
मुंदी पलकों में नामुमकिन से ख़्वाब पनाह लेने चले आते हैं

इक रोज़ मेरे जिस्म पर पड़ी तुम्हारी परछाइयों को गढ़ के एक मूरत बनाई थी
सोचा था,
जिस दिन तुम्हारी निगाहों से तप कर लाल होकर आऊँगी इसमें जान फूकुँगी,
प्यार में पागल लड़कियों के किस्से तो सुनते ही रहते हो तुम
प्यार में बँटी हुई लड़कियों की कहानियाँ मैं तुम्हें सुनाऊँगी

जानते हो तुम्हें क्या करना है?
उस दुनिया, उन सिलवटों, उन ख्वाबों, उस मूरत, उस लड़की को
दिल में नहीं,अपनी रूह में जगह देनी है बस थोड़ी सी

तुमने कहा था ये जन्म दूसरों के लिए है,
तो मैं इंतज़ार करूँगी उस पार, जब तुम्हारी रूह दूसरा पता ढूँढ लेगी,

मैं आऊँगी इन्हें वापस लेने,
और तुम्हें भी।

– अपर्णा त्रिपाठी ©