साप्ताहिक क्रांति

इस मायूस ठण्ड में भी मेरे कलम की स्याही जम गई है
अलसा के सारे जज़्बात रजाई में जा छुपे हैं

झकझोरती नहीं है स्कूल में एक बच्चे की हत्या
अस्पताल में मरीज़ की मौत के बाद लाखों का बिल
ख़ून नहीं खौलाती देशभक्ति के नाम पर धार्मिक उन्माद की खबरें
बलात्कार, बेरोज़गारी, किसानों की आत्महत्या
लोगों के नसों में दौड़ते खून को भयावह ख़बरों ने जमा दिया है

ना जाने और कितनी “साप्ताहिक क्रांतियाँ ” चाहिए
फिर से उबाल लाने के लिए

अपर्णा त्रिपाठी©

बेटी

वो हर रात लौटती है जब घर

थककर,

चहकते हुए दिन के किस्से सुनाती है

कई बार इतना हंसती है

की दुहरानी पड़ती है बातें समझाने के लिए

शिकायतें साथ वालों की करती है तो माथे पर कई कई बल पड़ जाते हैं

सफ़र में रोज़ ही मिलते हैं उसे जाने कैसे दिलचस्प लोग

दोस्त भी तो कितने हैं उसके

उनकी ज़िंदगी में भी ना जाने क्या क्या होता है

घंटों उनके मसले भी हम ख़ुद ही हल कर लेते हैं


पर मुझे मालूम है

अपने कमरे में जब जाती है

अपनी चहेती बालियों के साथ अपनी वो झूठी मुस्कुराहटें भी सहेज लेती है उस डब्बे में

मैंने देखा है चुपके से 

सुबह उसे अपने चेहरे पे चिपकाते


लाचार हूं शरीर से

पर माँ हूँ 

उसकी ये सारी चालाकियां बचपन से ही समझ लेती हूं
अपर्णा त्रिपाठी©

जश्न के बाद! 

मेरे दोस्त कहते हैं

मैं इश्क़ में खुद को भूल जाती हूं

ये सच है!


और सच ये भी कि इश्क़ वक़्त के साथ बह जाता है

जैसे

जश्न के बाद चले जाते हैं मेहमान किसी घर से

बेतरतीब उस घर में तब सन्नाटा पसर जाता है

काटने को दौड़ती है वो ख़ामोशी, वो सूनापन

कभी तस्वीरों, कभी तोहफ़ों, कभी बातों में 

जबरन यादें वक़्त- बेवक़्त चली आती है

इतना फैला होता है सामान

कि इसकी असली शक़्ल ओ सूरत भी याद नहीं आती

हर कोने अतरे से निकलती हैं चीजें, 

कुछ खो ही जाती हैं तमाम एहतियात के बावजूद

कई दिन लग जाते हैं,

झाड़ते-बुहारते,सजाते, संवारते

तब कहीं जाके ये फ़िर उस हाल में आता है।


इस बार के जश्न में कोई मेरी नींव का पत्थर ही ले गया,

जाने किस नशे में धुत थी कि देखा भी नहीं

अब घर के खंडहर के अंधेरे साये में बैठी हूँ


अबके साल गुज़र जाएंगे फिर इसे बनाते,

जाने फिर उस हाल में लौटेगा भी या नहीं!!


अपर्णा त्रिपाठी ©

कुछ लिखूं?

मैं कुछ लिखूं? 

पढ़ोगे?

क्या लिख दूँ सारे जज़्बात,

समझोगे?


उतार दूँ पन्नों पे वो सारी बेचैनियां, 

सिर्फ एक झलक देखने की बेताबियाँ,

वो तरस महज़ एक शब्द सुनने की,

वो मिलने की तड़प,

तुम्हें देखते ही छू कर यकीन कर लेने की चाहत,

तुम्हारी एक हँसी पे दिल को पड़ने वाली ठंडक,

वक़्त से उसी एक लम्हे में रुक जाने की दुआ,

तुमसे लिपट कर पिघल जाने का ख़्वाब,

तुम से मिल के आने पे लबों से नस नस में उतर जाने वाली ख़ुशी,

ग़म छुपा कर मुस्कुराते हुए तुम्हें अलविदा कहने की ताक़त, 

हर बार तुमको भूल जाने का ख़ुद से वादा,

हर बार इस टूटे वादे के घाव की टीस,

वो ख़ुद से गुस्सा झूठे ख़्वाबों को हवा देने का,


फिर,

फिर तुम्हारा फ़ोन, मुझसे मिलने की ख़्वाहिश,

फिर वही बेचैनियां,

फिर एक झलक देखने की बेचैनियां…..


महसूस कर पाओगे?


बोलो,

लिख दूँ?

पढ़ पाओगे?


अपर्णा त्रिपाठी©

रु- ब- रु {वीडियो}

बहुत दिनों से ख़्वाहिश थी कि आपसे रूबरू आऊं और उसी की एक छोटी सी कोशिश है ये वीडियो। इसका ऑडियो थोड़ा ख़राब है, इसके लिए हाथ जोड़ कर माफ़ी। आप मौका देंगे तो इससे बेहतर प्रयास लेकर आपके सामने जल्द ही आउंगी। शुक्रिया 😊🙏

अलविदा 2017

इस जाते हुए साल की यात्रा की पूरी तैयारी कर ली है मैंने 

एक बड़े से बैग में भर दी हैं सारी यादें 

थी भी तो कितनी ज्यादा 

जो कुछ दिल के करीब थीं ना उन्हें भेजते हुए बहुत दुःख सा हो रहा है 

पर वो कहते हैं ना 

नयी  यादों के लिए जगह तो बनानी पड़ती है 

और हाँ,

वो लोग,वो बातें जिन्हें पीछे छोड़ दिया है 

उनकी एक पोटली बाँध दी है 

जब ट्रेन उस पुल से गुजरेगी ना धडधडाते हुए 

नदी में डाल देना 

उन्हें भी कोई किनारा मिल जाएगा 

और हाँ,

कह देना उन गुजरे हुए सभी सालों से 

उनकी सभी ज्यादतियों के बावजूद 

उन ऊँचे नीचे रास्तों पे चलते हुए 

मैं बहुत दूर निकल आयी हूँ 

और उनकी सारी साजिशों के बाद भी 

खुश हूँ,बहुत बहुत खुश 

और नाचते हुए स्वागत करुँगी नए साल का 
जाओ 2017,अलविदा,

तुम्हारी यात्रा मंगलमय हो 
अपर्णा त्रिपाठी©

साहस

क्या तुममें साहस है,
अपने महिमामंडित आदर्शों की खंडित प्रस्तर प्रतिमाएं पूजने का,

अपने सिद्धांतों के चीथड़ों को अपने पैरों तले रौंदते हुए लक्ष्य पा लेने का,

अपनी नैतिकता की लाचार, अक्षम, पंगु देह को अपने सामने बिठाकर हंसते रहने का,

लुंठित, कुंठित मानसिकता की वासना का नंगा नाच देखने का,
अगर नहीं,

तो आत्मघात कर लो,

क्योंकि ‘देवयुग’ ख़त्म हो गया है।
अपर्णा त्रिपाठी ©

शब्द नाराज़ हैं

शब्द नाराज़ हैं।
शब्द नाराज़ हैं कि वो यक~ब~ यक जकड़ लिए गए हैं पारिभाषिक बेड़ियों में।

पहले शब्द चुने जाते थे,

बुने जाते थे, गुने जाते थे,

शब्द लिखे जाते थे, सँवारे जाते थे

समझे जाते थे, सुने जाते थे।
अब शब्द ख़फ़ा हैं पारिभाषिक जेलों में।
और ये जेल भाषायी नहीं है,

क्षेत्रवादी है, धर्मवादी है, जातिवादी है, लिंगवादी है।

अब,

शब्द खींचे जाते हैं, खरोंचे जाते हैं,

उल्टे जाते हैं, नोचे जाते हैं, 

चीखे जाते हैं, बाटे जाते हैं, छीने जाते हैं।
शब्द नाराज़ हैं।।

अपर्णा त्रिपाठी©